नीतिशतकात् उद्धृताः सूक्तयः
= नीतिशतक से अवतरित सूक्तियाँ >>>
(१) ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मा ऽपि तं नरं न रञ्जयति = जिसे अप ने थोडे से ज्ञान पर मिथ्या घमण् ड उस व्यक्ति को ब्रह्मा भी सं तुष्ट नहीं कर सकता।
(२) विभूषणं मौनमपण्डितानाम् ।
= मौन मूर्खों का आभूषण है।
(३) नहि गणयति क्षुद्रो जन्तुः परिग्रहफल्गुताम् ।
= नीच प्राणी अपनाई वस्तु की नि स्सारता की परवाह नहीं करता ।
(४) विवेकभ्रष्टानां भवति विनि पातः शतमुखः ।
= अविवेकी लोंगों का पतन सैंकडों प्रकार से होता है।
(५) मूर्खस्य नास्त्यौषधम् ।
= मूर्ख की मूर्खता की कोई दवा नहीं है।
(६) कवयस्त्वर्थं विनापीश्वराः ।
= विद्वान तो निर्धन होने पर भी ऐश्वर्यशाली होते हैं।
(७) विद्याविहीनः पशुः ।
= विद्या रहित व्यक्ति पशु ही है ।
(८) क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम् ।
= अन्य आभूषण नष्ट हो जाते हैं, परन्तु वाणी रुपी आभूषण सदा स् थायी रहता है।
(९) सत्सङ्गतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ।
= कहिये सत्संगति मानव को क्या नहीं करती है ? अर्थात् संत्सं गति मानव का सभी प्रकार से कल् याण करती है।
(१०) न खलु वयस्तेजसो हेतुः ।
= पराक्रम के लिए अवस्था कारण न हीं होती।
(११) प्रारब्धमुत्तमजनाः न परि त्यजन्ति ।
= प्रारम्भ किये कार्य को उत्तम लोग बीच में नहीं छोडते।
(१२) सतां केनोद्दिष्टं विषममसि धाराव्रतमिदम्।
= सत्पुरुषो को इस असिधारा व्रत का उपदेश किसने किया है?
(१३) सर्वः कृच्छ्रगतोऽपि वाञ् छति जनः सत्त्वानुरूपं
फलम् ।
= विपत्तिग्रस्त होने पर भी सब प्राणी अपने पौरुष के अनुरूप ही फल चाहते हैं।
(१४) स जातो येन जातेन याति वं शः समुन्नतिम् ।
= उसी जन्म लेना सार्थक है जि ससे वंश उन्नति करता है।
(१५) सर्वे गुणाः काञ्चनमाश् रयन्ति ।
= सभी गुण कंचन (धन) के आश्रित हैं।
(१६) वाराङ्गनेव नृपनीतिरनेकरू पा ।
=राजनीति वैश्या के समान अनेक रु प धारण करने वाली है ।
(१७) दुर्जनः परिहर्तव्यः विद् ययालङ्कृतोऽपि सन् ।
= विद्या से युक्त होने पर भी दु र्जन को त्याग देना चाहिए।
(१८) छायेव मैत्री खलसज्जनानाम् ।
= दुर्जन और सज्जनों की मित्रता (पूर्वार्ध और परार्ध की ) छा या के समान है।
(१९) होतारमपि जुह्वानं स्पृष् टो दहति पावकः ।
= स्पर्श करने पर हवन करने वाले को भी आग जलाती है।
(२०) सेवाधर्मः परमगहनो योगिना मप्यगम्यः ।
= सेवाकर्म बडा गूढ है यह योगि यों के लिए भी अगम्य है।
(२१) अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृ द्धिभिः ।
= समृद्धशाली होने पर भी सत्पु रुष विनम्र रहते हैं।
(२२) सन्तः स्वयं परहिते विहिता भियोगाः ।
= सत्पुरुष स्वयं ही परोपकार में लगे रहते हैं।
(२३) विभाति कायः करुणापराणां प रोपकारैर्न तु चन्दनेन ।
= दयावान मनुष्य का शरीर परोपका र से सुशोभित होता है , चन्दन के अनुलेप से नहीं ।
(२४) न निश्चितार्थाद्विरमन्ति धीराः ।
= धैर्यशाली कभी अपने संकल्प से विचलित नहीं होते।
(२५) शीलं परं भूषणम् ।
= शील (चरित्र) सर्वश्रेष्ठ आभू षण है।
(२६) मनस्वी कार्यार्थी गणयति न दुःखं न च सुखम् ।
= कार्य सिद्धि की इच्छा रखने वा ला मनस्वी पुरुष सुख दुख की परवा ह नहीं करता है।
(२७) न्याय्यात् पथः प्रविचलन् ति पदं न धीराः ।
= धीरवीर कभी न्याय के मार्ग से एक कदम भी नहीं हटता है।
(२८) नास्त्युद्यमसमो बन्धुः ।
= परिश्रम के समान मनुष्य का को ई बन्धु नहीं है।
(२९) आलस्यं हि मनुष्याणां शरी रस्थो महान् रिपुः ।
= मनुष्य के शरीर में रहने वाला आलस्य उसका सबसे बडा शत्रु है।
(३०) सन्तः सन्तप्यन्ते न दुःखे षु ।
= सत्पुरुष अपने उपर आने वाले दु खों से कभी दुखी नहीं होता ।
(३१) कर्मायत्तं फलं पुंसाम् ।
= मनुष्य को कर्म का फल मिलता है ।
(३२) रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृ तानि ।
= पूर्वकृत पुण्य प्राणी की रक् षा करते हैं।
(३३) तेजस्विनः सुखमसूनपि सन्त् यजन्ति
सत्यव्रतव्यसनिनः न पुनः प्रति ज्ञाम् ।
= सत्यव्रती तेजस्वी अपने प्रा णों का त्याग कर सकते हैं अपनी प्रतिज्ञा का नहीं।