भारत के ये 11 अजब गज़ब गाँव जहाँ आप एक बार जरूर जाना चाहेंगे
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1. एक गाँव जहां दूध दही मुफ्त मिलता है
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यहां के लोग कभी दूध या उससे बन ने वाली चीज़ो को बेचते नही हैं बल्कि उन लोगों को मुफ्त में दे देते हैं जिनके पास गएँ ये भैं से नहीं हैं धोकड़ा गुजरात के कक् ष में बसा ऐसा ही अनोखा गाँव है आज जब इंसानियत खो सी गयी है लो ग किसी को पानी तक नही पूछते श् वेत क्रांति के लिए प्रसिद्ध ये गाँव दूध दही ऐसे ही बाँट देता है, यहां पर रहने वाले एक पुजा री बताते हैं की उन्हें महीने में करीब 7,500 रुपए का दूध गाँव से मुफ्त में मिलता है।
2. इस गाँव में आज भी राम राज्य है
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महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के नेवासा तालुके में शनि शिन्ग्ना पुर भारत का एक ऐसा गाँव है जहाँ लोगों के घर में एक भी दरवाजा नही है यहाँ तक की लोगों की दु कानों में भी दरवाजे नही हैं, य हाँ पर कोई भी अपनी बहुमूल्य ची जों को ताले – चाबी में बंद करके नहीं रखता फिर भी गाँव में आज – तक कभी कोई चोरी नही हुई |
3. एक अनोखा गाँव जहाँ हर कोई सं स्कृत बोलता हैं
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आज के समय में हमारे देश की रा ष्ट्र भाषा हिंदी भी पहचान के सं कट से जूझ रही हैं , कर्नाटक के शिमोगा शहर के कुछ ही दूरी पर एक गाँव ऐसा बसा हैं जहाँ ग्रा मवासी केवल संस्कृत में ही बात करते हैं। शिमोगा शहर से लगभग द स किलोमीटर दूर मुत्तुरु अपनी वि शिष्ठ पहचान को लेकर चर्चा में हैं। तुंग नदी के किनारे बसे इस गांव में संस्कृत प्राचीन काल से ही बोली जाती है।
करीब पांच सौ परिवारों वाले इस गांव में प्रवेश करते ही “भवत: नाम किम्?” (आपका नाम क्या है?) पूछा जाता है “हैलो” के स्थान पर “हरि ओम्” और “कैसे हो” के स् थान पर “कथा अस्ति?” आदि के द् वारा ही वार्तालाप होता हैं। बच् चे, बूढ़े, युवा और महिलाएं- सभी बहुत ही सहज रूप से संस्कृत में बात करते हैं। भाषा पर किसी धर् म और समाज का अधिकार नहीं होता तभी तो गांव में रहने वाले मुस् लिम परिवार के लोग भी संस्कृत उ तनी ही सहजता से बोलते हैं जैसे दूसरे लोग।
गाँव की विशेषता हैं कि गाँव की मातृभाषा संस्कृत हैं और काम चा हे कोई भी हो संस्कृत ही बोली जा ती हैं जैसे इस गांव के बच्चे क् रिकेट खेलते हुए और आपस में झगड़ ते हुए भी संस्कृत में ही बातें करते हैं। गांव में संस्कृत में बोधवाक्य लिखा नजर आता है। “मा र्गे स्वच्छता विराजते। ग्रामे सुजना: विराजते।” अर्थात् सड़क प र स्वच्छता होने से यह पता चलता है कि गाँव में अच्छे लोग रहते हैं। कुछ घरों में लिखा रहता है कि आप यहां संस्कृत में बात कर कर सकते हैं। इस गांव में बच् चों की प्रारंभिक शिक्षा संस्कृ त में होती है
4. एक गांव जो हर साल कमाता है 1 अरब रुपए
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यूपी का एक गांव अपनी एक खासियत की वजह से पूरे देश में पहचाना जाता है। आप शायद अभी तक इस गां व की पहचान से दूर रहे हों, ले किन देश के कोने-कोने में इस गां व ने अपने झंडे गाड़ दिए हैं।
अमरोहा जनपद के जोया विकास खंड क्षेत्र का ये छोटा सा गांव है सलारपुर खालसा। 3500 की आबादी वा ले इस गांव का नाम पूरे देश में छाया है और इसका कारण है टमा टर। गांव में टमाटर की खेती बड़े पैमाने पर होती है और 17 साल में टमाटर आसपास के गांवों जमापुर, सूदनपुर, अंबेडकरनगर में भी छा गया है।
देश का शायद ही कोई कोना होगा, जहां पर सलारपुर खालसा की जमीन पर पैदा हुआ टमाटर न जाता हो। गां व में 17 साल से चल रही टमाटर की खेती का क्षेत्रफल फैलता ही जा रहा है और अब मुरादाबाद मंडल में सबसे ज्यादा टमाटर की खेती इसी गांव में होती है। कारोबार की बात करें, तो पांच माह में यहां 60 करोड़ का कारोबार होता है।
जनपद में 1200 हेक्टेयर में हो ने वाली टमाटर की खेती में इन चा र गांवों में ही अकेले 1000 हे क्टेयर में खेती होती है। जिसके चलते यह गांव मुरादाबाद मंडल में भी अव्वल नंबर पर है। जबकि सू बे में भी टमाटर खेती में आगे र हने वाली जगहों में इस गांव का नाम शामिल है।
इस साल की बात करें, तो प्रदेश में डेढ़ क्विंटल टमाटर बीज की बिक्री हुई थी। जिसमें अकेले सला रपुर खालसा में ही 80 किलो बीज बिका था।
5. ये है जुड़वों का गाँव, रहते है 350 से ज्यादा जुड़वाँ
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केरल के मलप्पुरम जिले में स्ति थ कोडिन्ही गाँव (Kodihni Village) को जुड़वों के गाँव ( Twins Village) के नाम से जाना जाता है । यहाँ पर वर्तमान में करीब 350 जुड़वा जोड़े रहते है जिनमे नवजात शिशु से लेकर 65 साल के बुजुर्ग तक शामिल है। विशव स्तर पर हर 1000 बच्चो पर 4 जुड़वाँ पैदा होते है, एशिया में तो यह औसत 4 से भी कम है। लेकिन को डिन्ही में हर 1000 बच्चों पर 45 बच्चे जुड़वा पैदा होते है। हालांकि यह औसत पुरे विशव में दू सरे नंबर पर , लेकिन एशिया में पहले नंबर पर आता है। विशव में पहला नंबर नाइज़ीरिआ के इग्बो- ओरा को प्राप्त है जहाँ यह औसत 145 है। कोडिन्ही गाँव एक मुस् लिम बहुल गाँव है जिसकी आबादी क रीब 2000 है। इस गाँव में घर, स् कूल, बाज़ार हर जगह हमशक्ल नज़र आते है।
6. एक गाँव जिसे कहते है भगवान का अपना बगीचा
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जहाँ एक और सफाई के मामले में ह मारे अधिकांश गाँवो, कस्बों और शहरों की हालत बहुत खराब है वही यह एक सुखद आश्चर्य की बात है की एशिया का सबसे साफ़ सुथरा गाँ व भी हमारे देश भारत है। यह है मेघालय का मावल्यान्नॉंग गांव जि से की भगवान का अपना बगीचा ( God’s Own Garden) के नाम से भी जाना जाता है। सफाई के साथ साथ यह गाँव शि क्षा में भी अवल्ल है। यहाँ की साक्षरता दर 100 फीसदी है, या नी यहां के सभी लोग पढ़े-लिखे हैं । इतना ही नहीं, इस गांव में ज् यादातर लोग सिर्फ अंग्रेजी में ही बात करते हैं।
खासी हिल्स डिस्ट्रिक्ट का यह गां व मेघालय के शिलॉंन्ग और भारत-बां ग्लादेश बॉर्डर से 90 किलोमीटर दूर है। साल 2014 की गणना के अनु सार, यहां 95 परिवार रहते हैं। यहां सुपारी की खेती आजीविका का मुख्य साधन है। यहां लोग घर से निकलने वाले कूड़े-कचरे को बां स से बने डस्टबिन में जमा करते हैं और उसे एक जगह इकट्ठा कर खे ती के लिए खाद की तरह इस्तेमाल करते हैं।
7. एक श्राप के कारण 170 सालों से हैं वीरान – रात को रहता है भूत प्रेतों का डेरा
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हमारे देश भारत के कई शहर अपने दामन में कई रहस्यमयी घटनाओ को समेटे हुए है ऐसी ही एक घटना हैं राजस्थान के जैसलमेर जिले के कु लधरा(Kuldhara) गाँव कि, यह गां व पिछले 170 सालों से वीरान पड़ा हैं।कुलधरा(Kuldhara) गाँव के हज़ारों लोग एक ही रात मे इस गां व को खाली कर के चले गए थे और जाते जाते श्राप दे गए थे कि यहाँ फिर कभी कोई नहीं बस पायेगा। त ब से गाँव वीरान पड़ा हैं।
कहा जाता है कि यह गांव रूहानी ताकतों के कब्जे में हैं, कभी ए क हंसता खेलता यह गांव आज एक खं डहर में तब्दील हो चुका है| टू रिस्ट प्लेस में बदल चुके कु लधरा गांव घूमने आने वालों के मु ताबिक यहां रहने वाले पालीवाल ब् राह्मणों की आहट आज भी सुनाई दे ती है। उन्हें वहां हरपल ऐसा अनु भव होता है कि कोई आसपास चल रहा है। बाजार के चहल-पहल की आवाजें आती हैं, महिलाओं के बात करने उनकी चूडिय़ों और पायलों की आवा ज हमेशा ही वहां के माहौल को भया वह बनाते हैं। प्रशासन ने इस गां व की सरहद पर एक फाटक बनवा दिया है जिसके पार दिन में तो सैला नी घूमने आते रहते हैं लेकिन रा त में इस फाटक को पार करने की को ई हिम्मत नहीं करता हैं।
8. इस गांव में कुछ भी छुआ तो ल गता है 1000 रुपए का जुर्माना
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हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले के अति दुर्गम इलाके में स्तिथ है मलाणा गाँव। इसे आप भारत का सब से रहस्यमयी गाँव कह सकते है। य हाँ के निवासी खुद को सिकंदर के सैनिकों का वंशज मानते है। यहां पर भारतीय क़ानून नहीं चलते है यहाँ की अपनी संसद है जो सारे फै सले करती है। मलाणा भारत का इकलौ ता गांव है जहाँ मुग़ल सम्राट अक बर की पूजा की जाती है।
हिमाचल के मलाणा गांव में लगे नो टिस बोर्ड।
कुल्लू के मलाणा गांव में यदि कि सी बाहरी व्यक्ति ने किसी चीज़ को छुआ तो जुर्माना देना पड़ता है। जुर्माने की रकम 1000 रुपए से 2500 रुपए तक कुछ भी हो सकती है ।
अपनी विचित्र परंपराओं लोकतांत् रिक व्यवस्था के कारण पहचाने जा ने वाले इस गांव में हर साल हजा रों की संख्या में पर्यटक पहुं चते हैं। इनके रुकने की व्यवस् था इस गांव में नहीं है। पर्यटक गांव के बाहर टेंट में रहते हैं । अगर इस गांव में किसी ने मकान -दुकान या यहां के किसी निवासी को छू (टच) लिया तो यहां के लोग उस व्यक्ति से एक हजार रुपए वसू लते हैं।
ऐसा नहीं हैं कि यहां के निवासी यहां आने वाले लोगों से जबरिया वसूली करते हों। मलाणा के लोगों ने यहां हर जगह नोटिस बोर्ड लगा रखे हैं। इन नोटिस बोर्ड पर सा फ-साफ चेतावनी लिखी गई है। गांव के लोग बाहरी लोगों पर हर पल नि गाह रखते हैं, जरा सी लापरवाही भी यहां आने वालों पर भारी पड़ जाती है।
मलाणा गांव में कुछ दुकानें भी हैं। इन पर गांव के लोग तो आसा नी से सामान खरीद सकते हैं, पर बाहरी लोग दुकान में न जा सकते हैं न दुकान छू सकते हैं। बाहरी ग्राहकों के दुकान के बाहर से ही खड़े होकर सामान मांगना पड़ ता है। दुकानदार पहले सामान की कीमत बताते हैं। रुपए दुकान के बाहर रखवाने के बाद सामन भी बा हर रख देते हैं।
9. यह गाँव कहलाता है ‘मिनी लं दन’
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झारखंड की राजधानी रांची से उत् तर-पश्चिम में करीब 65 किलोमीटर दूर स्थित एक कस्बा गांव है मै क्लुस्कीगंज। एंग्लो इंडियन समु दाय के लिए बसाई गई दुनिया की इ स बस्ती को मिनी लंदन भी कहा जा ता है।
घनघोर जंगलों और आदिवासी गांवों के बीच सन् 1933 में कोलोनाइजे शन सोसायटी ऑफ इंडिया ने मैकलु स्कीगंज को बसाया था। 1930 के द शक में रातू महाराज से ली गई ली ज की 10 हजार एकड़ जमीन पर अर्ने स्ट टिमोथी मैकलुस्की नामक एक एं ग्लो इंडियन व्यवसायी ने इसकी नीं व रखी थी। चामा, रामदागादो, के दल, दुली, कोनका, मायापुर, महु लिया, हेसाल और लपरा जैसे गांवों वाला यह इलाका 365 बंगलों के सा थ पहचान पाता है जिसमें कभी एं ग्लो-इंडियन लोग आबाद थे। पश्चि मी संस्कृति के रंग-ढंग और गोरे लोगों की उपस्थिति इसे लंदन का सा रूप देती तो इसे लोग मिनी लं दन कहने लगे।
मैकलुस्की के पिता आइरिश थे और रेल की नौकरी में रहे थे। नौकरी के दौरान बनारस के एक ब्राह्मण परिवार की लड़की से उन्हें प्या र हो गया। समाज के विरोध के बा वजूद दोनों ने शादी की। ऐसे में मैकलुस्की बचपन से ही एंग्लो-इं डियन समुदाय की छटपटाहट देखते आ ए थे। अपने समुदाय के लिए कुछ क र गुजरने का सपना शुरू से उनके मन में था। वे बंगाल विधान परि षद के मेंबर बने और कोलकाता में रियल एस्टेट का कारोबार भी खूब ढंग से चलाया।कोलकाता में प्रॉ पर्टी डीलिंग के पेशे से जुड़ा टि मोथी जब इस इलाके में आया तो यहां की आबोहवा ने उसे मोहित कर लि या। यहां के गांवों में आम, जा मुन, करंज, सेमल, कदंब, महुआ, भे लवा, सखुआ और परास के मंजर, फूल या फलों से सदाबहार पेड़ उसे कु छ इस कदर भाए कि उसने भारत के एं ग्लो-इंडियन परिवारों के लिए एक अपना ही चमन विकसित करने की ठा न ली।
1930 के दशक में साइमन कमीशन की रिपोर्ट आई जिसमें एंग्लो-इंडि यन समुदाय के प्रति अंग्रेज सरका र ने किसी भी तरह की जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लिया था। पूरे एं ग्लो-इंडियन समुदाय के सामने खड़े इस संकट को देखते हुए मैकलुस् की ने तय किया कि वह समुदाय के लिए एक गांव इसी भारत में बनाएं गे। बाद ऐसा ही हुआ। कोलकाता और अन्य दूसरे महानगरों में रहने वाले कई धनी एंग्लो-इंडियन परि वारों ने मैकलुस्कीगंज में डेरा जमाया, जमीनें खरीदीं और आकर् षक बंगले बनवाकर यहीं रहने लगे।
इंसानों की तरह मैकलुस्कीगंज को भी कभी बुरे दिन देखने पड़े थे। यहां के लोग उस दौर को भी याद करते हैं जब एक के बाद एक एंग् लो-इंडियन परिवार ये जगह छोड़ते चले गए। कुछ 20-25 परिवार रह गए , बाकी ने शहर खाली कर दिया। इस के बाद तो खाली बंगलों के कारण भूतों का शहर बन गया था मैकलुस् कीगंज।
लेकिन, और अब यह दौर है जब गिने -चुने परिवार मैकलुस्कीगंज को आ बाद करने में जुटे हैं। यहां कई हाई प्रोफाइल स्कूल खुल गए हैं , जिनमें पड़ने के लिए दूर-दूर से छात्र आ रहे हैं। पक्की सड़कें बनी हैं, जरूरत के सामान की कई दुकानें भी खुल गई हैं। एक के बा द कई स्कूल खुल गए हैं। साथ ही बस्ती की अधिकतर गलियों या बं गलों में छात्रावास होने के सा इनबोर्ड भी मिलेंगे। ये सब एक न ए मैकलुस्कीगंज की ओर मिनी लंदन को ले जा रहे हैं।
10. एक गाँव जहाँ छत पर रखी पा नी की टंकियों से होती है घरो की पहचान
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यह कहानी है पंजाब के जालंधर शह र के एक गांव उप्पलां की। इस गाँ व में अब लोगों की पहचान उनके घ रों पर बनी पानी की टंकियों से होती है। अब आप सोच रहे होंगे की पानी की टंकियों में ऐसी क्या विशेषता है तो हम आपको बता दे की यहाँ के मकानो की छतो पर आम वा टर टैंक नहीं है, बल्कि यहाँ पर शिप, हवाईजहाज़, घोडा, गुलाब, का र, बस आदि अनेकों आकर की टंकिया है।
इस गांव के अधिकतर लोग पैसा कमा ने लिए विदेशों में रहते है। गां व में खास तौर पर एनआरआईज की को ठियां में छत पर इस तरह की टंकि या रखी है। अब कोठी पर रखी जाने वाली टंकियो से उसकी पहचानी जा रही हैं। नामी परिवार अपने घरों पर तरह तरह की टंकियां बनवा रहे हैं। कोई गुलाब का फूल बना खु शहाली का संकेत देता है तो कोई घोड़ा बनाकर रुआबदार परिवार का सं देश देता है। कोई शेर बनाकर अपनी बहादुरी जाहिर करता है तो कोई बाज बनाकर अपनी पहचान को दमदार रूप से प्रस्तुत करता है।
तरसेम सिंह उप्पल जब 70 साल पहले हांगकांग गए थे तो उन्होंने सफ र शिप से किया था। अपने बेटों को अपनी पहली यात्रा के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा था कि ह म भी अपने घर पर शिप बनवाएंगे। 1995 में यह शिप बनाई गई।
82 साल के गुरदेव सिंह द्वारा ब नाया गया बब्बर शेर भी कई सालों तक चर्चा का विषय बना रहा। क् यों जो गुरदेव सिंह ने शेर पर खु द की मूरत बनाकर बिठा दी थी। कहा जाता है कि ऐसे करते ही गांव में लोग इकट्ठा होना शुरू हो गए। कहा गया कि शेर पर तो शेरां वा ली माता ही बैठ सकती है। आनन फा नन में मूरत हटा ली गई। शेर की मूरत वैसे की वैसी ही है। हटाई गई गुरदेव सिंह की मूरत अब भी को ठी में पड़ी है।
11. इसे कहते है मंदिरों का गाँ व और गुप्त काशी
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झारखंड के दुमका जिले में शिका रीपाड़ा के पास बसे एक छोटे से गांव ” मलूटी” में आप जिधर नज़र दौड़ाएंगे आपको प्राचीन मंदिर नज़ र आएंगे। मंदिरों की बड़ी संख् या होने के कारण इस क्षेत्र को गुप्त काशी और मंदिरों का गाँव भी कहा जाता है। इस गांव का रा जा कभी एक किसान हुआ करते था। उ सके वंशजों ने यहां 108 भव्य मं दिरों का निर्माण करवाया।
ये मंदिर बाज बसंत राजवंशों के काल में बनाए गए थे। शुरूआत में कुल 108 मंदिर थे, लेकिन संरक् षण के आभाव में अब सिर्फ 72 मं दिर ही रह गए हैं। इन मंदिरों का निर्माण 1720 से लेकर 1840 के मध्य हुआ था। इन मंदिरों का नि र्माण सुप्रसिद्व चाला रीति से की गयी है। ये छोटे-छोटे लाल सु र्ख ईटों से निर्मित हैं और इनकी ऊंचाई 15 फीट से लेकर 60 फीट त क हैं। इन मंदिरों की दीवारों प र रामायण-महाभारत के दृश्यों का चित्रण भी बेहद खूबसूरती से कि या गया है।
मलूटी पशुओं की बली के लिए भी जा ना जाता है। यहां काली पूजा के दिन एक भैंस और एक भेड़ सहित करी ब 100 बकरियों की बली दी जाती है । हालांकि पशु कार्यकर्ता समूह अक्सर यहां पशु बली का विरोध कर ते रहते हैं। जहां तक बात है मं दिरों के संरक्षण की तो बिहार के पुरातत्व विभाग ने 1984 में गां व को पुरातात्विक प्रांगण के रू प में विकसित करने की योजना बना ई थी। इसके तहत मंदिरों का सं रक्षण कार्य शुरू किया गया था औ र आज पूरा गांव पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हो रहा है। लेकि न मूलभूत सुविधाओं के अभाव के का रण पर्यटक यहां रात में रुकने से घबराते हैं।
मलूटी गांव में इतने सारे मंदिर होने के पीछे एक रोचक कहानी है । यहां के राजा महल बनाने की बजा ए मंदिर बनाना पसंद करते थे और राजाओं में अच्छे से अच्छा मं दिर बनाने की होड़ सी लग गई। परि णाम स्वरूप यहां हर जगह खूबसू रत मंदिर ही मंदिर बन गए और यह गांव मंदिर के गांव के रूप में जाना जाने लगा। मलूटी के मंदिरों की यह खासियत है कि ये अलग-अलग समूहों में निर्मित हैं। भगवान भोले शंकर के मंदिरों के अतिरि क्त यहां दुर्गा, काली, धर्मराज , मनसा, विष्णु आदि देवी-देवता ओं के भी मंदिर हैं। इसके अतिरि क्त यहां मौलिक्षा माता का भी मं दिर है, जिनकी मान्यता जाग्रत शा क्त देवी के रूप में है।
यह गांव सबसे पहले ननकार राजवंश के समय में प्रकाश में आया था। उसके बाद गौर के सुल्तान अला उद्दीन हसन शाह (1495–1525) ने इस गांव को बाज बसंत रॉय को इना म में दे दिया था। राजा बाज बसं त शुरुआत में एक अनाथ किसान थे। उनके नाम के आगे बाज शब्द कै से लगा इसके पीछे एक अनोखी कहा नी है। एक बार की बात है जब सु ल्तान अलाउद्दीन की बेगम का पा लतू पक्षी बाज उड़ गया और बाज को उड़ता देख गरीब किसान बसंत ने उसे पकड़कर रानी को वापस लौटा दि या। बसंत के इस काम से खुश होकर सुल्तान ने उन्हें मलूटी गांव इनाम में दे दिया और बसंत राजा बाज बसंत के नाम से पहचाने जा ने लगे।